लेखन के अनेक रूप होते हैं, उन्हीं में से एक है पटकथा लेखन। पटकथा शब्द अंग्रेजी के स्क्रीन प्ले का हिन्दी अनुवाद है। टेलिविजन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों और फिल्मों को बनाने से पहले एक रूपरेखा की आवश्यकता पड़ती है। जिसके आधार पर निर्देशक उसके स्वरूप को समझता है। पटकथा से दृश्यों और संवादों की जानकारी मिलती है। इसी के आधार पर फिल्म या कार्यक्रम का निर्माण होता है। और जो इसे तैयार करता है । उसे पटकथा लेखक कहते हैं। अगर हम भारतीय फिल्म और टेलीविजन उद्योग पर नज़र डालें तो पाऐंगे कि इसका क्षेत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। इस पर असग़र वजाहत जी लिखते हैं-
“मीडिया और मनोरंजन उद्योग के दो विशेष स्तम्भ फिल्म और टेलीविजन हैं। इन उद्योगों में भी लगातार वृद्धि की निश्चित सम्भावनाएं आंकी जाती हैं। विश्वस्त सूत्रों के अनुसार टेलीविजन उद्योग की विकास दर 14.5 प्रतिशत प्रति वर्ष और फिल्म उद्योग की विकास दर 18 प्रतिशत प्रति वर्ष होगी। भारतीय फिल्म और टेलीविजन उद्योग अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में मजबूती से अपने पैर जमा चुके हैं।”1
यानी लेखकों के लिए ‘पटकथा लेखन’ एक बेहतर कैरियर ऑपशन है। आवश्यकता है तो अपने हुनर को तराशने की। और फिल्मी दुनिया की समझ विकसित करने की।
पटकथा सामान्य लेखन से थोड़ा भिन्न होता है। यहां आपको सब कुछ कैमरे की नज़र से देखना पड़ता है। कथा और पटकथा के अन्तर को स्पष्ट करते हुए मनोहर श्याम जोशी लिखते हैं-
“प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ का शुरू का हिस्सा इस तरह से है –
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा, “सहना आया है, लाओ जो रूपए रक्खे हैं। उसे दे दूं। किसी तरह गला तो छूटे।”
मुन्नी झाड़़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली,“तीन ही तो रूपए हैं। दे दोगे तो कम्बल कहां से आएगा ? माघ-पूस की रात हाट में कैसे कटेगी ? उससे कहो फसल पर रूपए दे देंगे, अभी नहीं हैं।”
हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा, पूस सिर पर आ गया, बिना कम्बल के हाट में वह रात को किसी तरह नहीं रह सकता। मगर सहना मानेगा नहीं घुड़कियां जतावेगा, गालियां देगा। बला से जाड़ों मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ वह अपनी भारी-भरकम डील लिये हुए, जो उसके नाम को झूठा सिद्ध करती थी, स्त्री के समीप गया और खुशामद करके बोला, “ला दे, गला तो छूटे। कम्बल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा।”
अब इसी पर आधारित पटकथा देखिए-
दृश्य-1, बाहर/झोंपड़ी का दरवाजा/दिन
हम दिखाते हैं कि एक तगड़ा-सा गरीब अधेड़ आदमी हल्कू दरवाजे पर दस्तक दे रहा है और उससे थोड़ी दूर एक अन्य व्यक्ति हाथ में लाठी लिये मूंछें ऐंठता खड़ा है। दरवाजा आवाज करते हुए खुलता है। झाड़ू हाथ में लिये अधेड़ मुन्नी नजर आती है। हल्कू भीतर जाता है। लठैत व्यक्ति दरवाजे पर खड़ा हो जाता है।
दृश्य-2, दिन/भीतर/झोपड़ी के अंदर
हम देखते हैं कि जिस स्त्री ने दरवाजा खोला था वह झाड़ू लगाने लगती है। हल्कू एक क्षण हिचकता हुआ खड़ा रहता है फिर कहता है-
हल्कू : मुन्नी सुनती हो, सहना आया है, लाओ जो रूपए रक्खे हैं, उसे दे दूं। किसी तरह गला तो छूटे।
मुन्नी झाड़ू लगाना रोककर पीछे मुड़कर बोलती है।
मुन्नीः तीन ही तो रूपए हैं, दे दोगे तो कम्बल कहां से आएगा? माघ-पूस की रात हाट में कैसे कटेगी ? उससे कहो फसल पर रूपए दे देंगे। अभी नहीं हैं।”
हल्कू कुछ देर सिर खुजाता है फिर पत्नी के पास जाता है और लगभग खुशामदी आवाज में बोलता है।
हल्कूः अरी दे दे ना, गला तो छूटे। कम्बल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा।
कट टू 2
एक पटकथा किसी कहानी से किस प्रकार अलग है इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है। यहां कहानी को दृश्यों में विभाजित कर दिया जाता है। प्रत्येक दृश्य में होने वाली गतिविधियों को बताते हुए, संवादों को लिखा जाता है। काफी हद तक इसका स्वरूप नाटकों से मिलता जुलता है। लेकिन पूरी तरह से इसे नाटक नहीं कह सकते। जैसा कि मैंने पहले बताया है कि यहां सबकुछ कैमरे की नजर से देखना होता है। इसलिए इसके दृश्यों में ज़ूम इन, ज़ूम आउट, वाइप, स्लो मोशन, फ्लैशबैक आदि को भी ध्यान में रखना होता है।
संदर्भ
- पटकथा लेखनः व्यावहारिक निर्देशिका, अस़गर वजाहत, पृ॰5, राजकमल प्रकाशन
- पटकथा लेखनः एक परिचय , मनोहर श्याम जोशी, पृ॰17,18, राजकमल प्रकाशन