साहित्य और सिनेमा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों का कार्य लगभग एक ही है। समाज में जो भी घटनाएं घटित होती हैं, उनका प्रतिबिंब हमें साहित्य और सिनेमा दोनों में देखने को मिलता है। इस समानता के बावजूद सिनेमा का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। इसकी पहुंच उन लोगों तक भी है, जो लिखना और पढ़ना नहीं जानते। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि सिनेमा समाज को सबसे अधिक प्रभावित करता है। हमारे देश में तो लोगों का खाना, पीना, पहनना, ओढ़ना सब कुछ सिनेमा पर निर्भर है। ऐसे में फिल्मकारों का यह दायित्व बन जाता है कि वे उच्च कोटि की फिल्मों को लोगों तक पहुंचाएं, ताकि समाज में कुछ सकारात्मक परिवर्तन किए जा सकें। यह तभी संभव है ,जब सिनेमा में साहित्य समाहित हो जाए और कलात्मक फिल्मों को बनाने का प्रयास किया जाए, जिसमें एक सार्थक उद्धेश्य हो।
अगर हम सिनेमा के आरम्भिक स्वरूप को देखें तो पाएंगे कि इस समय अधिकतर फिल्में पौराणिक साहित्य पर आधारित होती थीं। दादा साहेब फाल्के द्वारा निर्देशित भारतीय सिनेमा की पहली मूक फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’(1913 ई॰), विनायक प्रसाद ‘तालिब’ के नाटक ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ पर आधारित थी। इसके अलावा भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’(1931ई॰), जोसेफ डेविड के नाटक ‘आलम आरा’ पर आधारित थी। यानी आरम्भ में सिनेमा ,साहित्य की अंगुली पकड़कर ही आगे बढ़ रहा था। किसी भी फिल्म के निर्माण की सबसे पहली आवश्यकता होती है ‘कहानी’ और इसका सबसे अच्छा स्रोत है साहित्य। इसीलिए आगे चलकर कई साहित्यकारों की रचनाओं को फिल्मांतरित किया गया। इस समय कई ऐसे साहित्यकार भी थे जो सिनेमा की ओर आकर्षित हुए जिनमें एक नाम कथा सम्राट ‘प्रेमचन्द’ का भी आता है। प्रेमचन्द अपने भावों को सिनेमा के जरिए बड़े जनसमूह तक पहुंचाना चाहते थे। लेकिन इसके साथ ही वह इस बात का भी समर्थन करते थे कि साहित्यिक मूल्यों में किसी भी प्रकार की गिरावट न आए। वह सिनेमा को सिर्फ व्यवसाय नहीं मानते थे, बल्कि इसे समाज को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला माध्यम मानते थे। ‘मोहन भावनानी’ ने उनकी कहानी पर आधारित ‘मिल मजदूर’ नाम से एक फिल्म बनाई थी। इसमें मूल कहानी से भिन्न कई बदलाव किए गए थे। जिन्हें देखकर प्रेमचन्द के अन्दर उपस्थित साहित्यकार को ठेस पहुंची और वह मुंबई से वापस आ गए। इसके बाद प्रेमचन्द लिखते हैं-
“अभी वह जमाना दूर है, जब सिनेमा और साहित्य का रूप एक होगा। लोकरूचि जब इतनी परिष्कृत हो जाएगी कि वह नीचे ले जाने वाली चीजों से घृणा करेगी तभी सिनेमा में साहित्य की सुरूचि दिखाई पड़ सकती है।”
यानी सिनेमा की व्यवसायिक दृष्टि ही सिनेमा को साहित्य से अलग करती है। लेकिन इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि इसके बाद कलात्मक फिल्मों को बनाने का प्रयास नहीं हुआ। अगर हम 1936ई॰ से लेकर 1942ई॰ तक का समय देखें तो पाएंगे कि इस दौरान कलात्मक फिल्मों की ओर थोड़ा बहुत रूझान उत्पन्न हुआ था। यह परिवर्तन बांग्ला फिल्मों की बजह से ही देखने को मिल रहे थे। इस समय बांग्ला सिनेमा में रविन्द्रनाथ टैगोर, बंकिम चन्द्र चटर्जी और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के साहित्य पर आधारित कई ऐसी फिल्में बनीं, जो अन्य फिल्मकारों के लिए मील का पत्थर साबित हुईं। हिन्दी सिनेमा भी इससे प्रभावित हुआ।
1935ई॰ में प्रथमेश बरूआ ने बांग्ला में लिखित शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित ‘देवदास’ फिल्म बनाई। यह एक बांग्ला फिल्म थी। इसकी सफलता से प्रेरित होकर ही 1936ई॰ में पुनः इसे प्रथमेश बरूआ के द्वारा हिन्दी में बनाया गया। जिसने हिन्दी सिनेमा में कई कीर्तिमान स्थापित किए। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए विमल रॉय ने 1955ई॰ में और संजय लीला भंसाली ने 2002ई॰ में इस पर फिल्म का निर्माण किया। ये सभी फिल्में सफल रहीं। इसके अलावा जब पशुपति चटर्जी ने शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘परिणिता’ पर आधारित फिल्म बनाई तब इससे प्रभावित होकर हिन्दी में विमल रॉय ने सन् 1953ई॰ और प्रदीप सरकार ने 2005ई॰ में इसी नाम से फिल्म बनाई। इसप्रकार हम देखते हैं कि कई बांग्ला फिल्मों ने हिन्दी सिनेमा को साहित्य के महत्व से परिचित करवाया। तत्पश्चात कई साहित्यिक कृतियों को फिल्मांतरित किया गया। जिनमें प्रमुख थीं- आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास ‘धर्मपुत्र’ पर आधारित फिल्म ‘धर्मपुत्र’। इसका निर्देशन यश चोपड़ा ने किया था। सन् 1962ई॰ में बांग्ला उपन्यासकार विमल मित्र के उपन्यास ‘साहब, बीबी और गुलाम’ पर आधारित इसी नाम से गुरूदत्त ने एक फिल्म बनाई थी। जिसको अबरार अल्वी ने निर्देशित किया था। हिन्दी और बांग्ला के अतिरिक्त कई अंग्रेजी उपन्यासों पर भी फिल्मों का निर्माण किया गया। उदाहरण स्वरूप हम आर॰के॰ नारायण के उपन्यास ‘द गाइड’ पर आधारित फिल्म ‘गाइड’ को देख सकते हैं। जिसे सन् 1965ई॰ में विजय आनन्द ने बनाया था। सन् 1966ई॰ में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गये गुलफाम’ पर ‘बासु भट्टाचार्य’ ने ‘तीसरी कसम’ नाम से एक फिल्म बनाई। जिसके विषय में अनुपम ओझा लिखते हैं-
“ तीसरी कसम, पहली फिल्म थी, जिसका कथानक, जिसके चरित्र और भाषास्वरूप तथा हिन्दी क्षेत्र की नज़दीकी बोलियों- भोजपुरी, मैथिली, वज्जिका आदि के निकटतर थीं, ख़ासतौर से कथानक का घटना-स्थल पूर्णिया के आसपास का वातावरण था।”
कलात्मक दृष्टि से तो यह फिल्म सफल सिद्ध हुई। इसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। परन्तु यह व्यवसायिक दृष्टि में असफल रही। यह फिल्म इतनी कमाई भी नहीं कर पाई कि अपनी लागत निकाल पाती, इसी बजह से इस फिल्म के निर्माता ‘शैलेन्द्र’ कर्ज़ के बोझ तले दब गए। जो उनकी मृत्यु का कारण बना। यह घटना दुःखपूर्ण थी। इसने सभी को हिलाकर रख दिया था। क्योंकि नए लेखक और निर्माता सिनेमा में जो प्रयोग कर रहे थे। उसी का यह परिणाम था। इस पर कमलेश्वर लिखते हैं-
“शायद तभी हमने चुपचाप और मन ही मन यह प्रतिज्ञा की थी कि जो अंत शैलेन्द्र का हुआ है, और जिन कारणों से हुआ है, उन्हें दुबारा दोहराए जाने से रोका जाए और नए फिल्मकारों के साथ मिलकर शैलेन्द्र की जलाई मशाल को लेकर आगे बढ़ा जाए।”
इसके बाद हिन्दी सिनेमा में ‘न्यूवेव सिनेमा’ की शुरूआत हुई। बाद में इसका नाम ‘समांतर सिनेमा’ पड़ा। जिसका उद्धेश्य था कि फिल्मों के लिए साहित्यिक कृतियों का चुनाव किया जाए, और उनपर स्क्रिप्ट तैयार कर निर्माताओं को सौंपा जाए, ताकि वे इसपर फिल्म बनाने का विचार करें। इसके लिए बाकायदा एक ‘स्क्रिप्ट बैंक’ तैयार किया गया था। जिनमें कहानियां और सिने-आलेख तैयार किए जाते थे। यानी सबकुछ विधिवत रूप से होता था। इसका नेतृत्व गुलज़ार, श्याम बेनेगल, मणि कौल, राजिंदर सिंह बेदी, आदि निर्देशकों के द्वारा किया गया था। हिन्दी सिनेमा में यह आन्दोलन भले ही सफल न हो पाया हो परन्तु इसके कुछ सकारात्मक परिणाम अवश्य देखने को मिले। जिनके विषय में कमलेश्वर लिखते हैं-
“समांतर सिनेमा की जिस यथार्थवादी धारा का उदय हुआ था। वह चाहें एक आन्दोलन के रूप में आगे नहीं चल पाई। पर उसका असर यह ज़रूर पड़ा कि मसाला फिल्मों की दुनिया में ‘लो बजट’ फिल्मों की कारगर शुरूआत हुई। हर बड़े और नामी गिरामी निर्माता ने ‘बिग बजट’ वाली करोड़ों की फिल्मों के साथ-साथ ‘लो बजट’ वाली ‘क्विकीज’ की ओर ध्यान दिया। बड़े बजट की मसाला फिल्मों के बनने में तीन से सात-आठ साल तक लगते थे और उनके फेल होने से इन्डस्ट्री सहम जाती थी।”
इसी ‘समांतर आन्दोलन’ के फलस्वरूप कई निर्देशकों के द्वारा साहित्यिक कृतियों को फिल्मांतरित किया गया। जिनमें प्रमुख थीं- मणिकौल के निर्देशन में बनी फिल्म ‘उसकी रोटी’(1971), और ‘आषाढ़ का एक दिन’(1972)। ये ‘मोहन राकेश’ की रचनाओं पर आधारित थीं। ‘कुमार साहनी’ की फिल्म ‘माया दर्पण’, ‘निर्मल वर्मा’ की रचना पर आधारित थी। ‘गुलज़ार’ के निर्देशन में बनी फिल्में ‘आंधी’(1975) और मौसम (1975), कमलेश्वर के उपन्यास पर आधारित थीं। इस तरह कई निर्देशकों ने साहित्य और सिनेमा को करीब लाने का प्रयास किया।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि साहित्य और सिनेमा का अन्तर्सम्बन्ध अटूट है, लेकिन इसके साथ ही इस सत्य को भी नहीं नकारा जा सकता है कि साहित्यिक कृतियों पर फिल्मांतरित होने वाली अधिकतर फिल्में असफल रहीं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि साहित्यिक कृतियों का अपना एक निर्धारित फार्मेट होता है। इनमें लेखक पात्रों के आपसी सम्बन्धों,मनोभावों और घटनाओं को एक तरह नैरेट करता हुआ कथा को आगे बढ़ाता है। जबकि फिल्म में यह शैली फिल्म निर्माण के अनुकूल नहीं मानी जाती है। इसलिए इन्हें रूपांतरित करते समय निर्देशकों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसमें सफलता तभी प्राप्त की जा सकती है, जब साहित्यकार और निर्देशक दोनों के बीच तालमेल स्थापित हो। क्यों कि इसके बिना किसी भी साहित्यिक कृति को रूपांतरित नहीं किया जा सकता।